वाल्मीकि
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वाल्मीकि प्राचीन भारतीय महर्षि है। उन्होने संस्कृत मे रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। इनको आदिकवि (कवियों का कवि) भी कहा जाता है| महर्षि वाल्मीकि का जन्म नागा प्रजाति में हुआ था |
[संपादित करें] दस्यु से महर्षि का परिवर्तन
महर्षि बनने के पहले वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे| वे एक दस्यु (डाकू) थे| दस्युकर्म के मध्य एक बार उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी| उसके इस विलाप को सुन कर रत्नाकर की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वं गमः शाश्वती शमा,
यत्क्रौंच मिथुनादेकं वधीः काममोहितम्..'
(अरे बहेलिये, तू ने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है| जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी|)
इस घटना के पश्चात दस्युकर्म से उन्हें विरक्ति हो गई ज्ञान की प्राप्ति में अनुरक्त हो गये| ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये|
अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है| इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे|
अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में भी गये थे|
देखत बन सर सैल सुहाए| बालमीक आश्रम प्रभु आए||
तथा जब "राम" ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब वाल्मीकि ने ही सीता को प्रश्रय दिया था|
उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि "राम" के समकालीन थे तथा उनके जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान वाल्मीकि ऋषि को था| उन्हें "राम" का चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की|
[संपादित करें] महर्षि वाल्मीकि का संक्षिप्त जीवन परिचय
हिंदुओं के प्रसिद्ध महाकाव्य वाल्मीकि रामायण, जिसे कि आदि रामायण भी कहा जाता है और जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र के निर्मल एवं कल्याणकारी चरित्र का वर्णन है, के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के विषय में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ प्रचलित है जिसके अनुसार उन्हें निम्नवर्ग का बताया जाता है जबकि वास्तविकता इसके विरुद्ध है| ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं के द्वारा हिंदू संस्कृति को भुला दिये जाने के कारण ही इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं| वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या ७/९३/१६, ७/९६/१८, और ७/१११/११ में लिखा है कि व प्रचेता के पुत्र हैं| मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है| बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र थे| यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम 'अग्निशर्मा' एवं 'रत्नाकर' थे|
किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण किया| जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहाँ का भील समुदाय असभ्य था और वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म ही उनके लिये जीवन यापन का मुख्य साधन था| हत्या जैसा जघन्य अपराध उनके लिये सामान्य बात थी| उन्हीं क्रूर भीलों की संगति में रत्नाकर पले, बढ़े, और दस्युकर्म में लिप्त हो गये|
युवा हो जाने पर रत्नाकर का विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया और ग्राहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद वे अनेक संतानों के पिता बन गये| परिवार में वृद्धि के कारण अधिक धनोपार्जन करने के लिये वे और भी अधिक पापकर्म करने लगे|
एक दिन साधुओं की एक मंडली उस वन प्रदेश से गुजर रही थी| रत्नाकर ने उनसे धन की मांग की और धन न देने की स्थिति में हत्या कर देने की धमकी भी दी| साधुओं के यह पूछने पर कि वह ये पापकर्म किसलिये करता है रत्नाकर ने बताया कि परिवार के लिये| इस पर साधुओं के गुरु ने पूछा कि जिस तरह तुम्हारे पापकर्म से प्राप्त धन का उपभोग तुम्हारे समस्त परिजन करते हैं क्या उसी तरह तुम्हारे पापकर्मों के दण्ड में भी वे भागीदार होंगे? रत्नाकर ने कहा कि न तो मुझे पता है और न ही कभी मैने इस विषय में सोचा है|
साधुओं के गुरु ने कहा कि जाकर अपने परिवार के लोगों से पूछ कर आवो और यदि वे तुम्हारे पापकर्म के दण्ड के भागीदार होने के लिये तैयार हैं तो अवश्य लूटमार करते रहना वरना इस कार्य को छोड़ देना, यदि तुम्हें संदेह है कि हम लोग भाग जायेंगे तो हमें वृक्षों से बांधकर चले जाओ|
साधुओं को पेड़ों से बांधकर रत्नाकर अपने परिजनों के पास पहुँचे| पत्नी, संतान, माता-पिता आदि में से कोई भी उनके पापकर्म में के फल में भागीदार होने के लिये तैयार न था, सभी का कहना था कि भला किसी एक के कर्म का फल कोई दूसरा कैसे भोग सकता है!
रत्नाकर को अपने परिजनों की बातें सुनकर बहुत दुख हुआ और उन साधुओं से क्षमा मांग कर उन्हें छोड़ दिया| साधुओं से रत्नाकर ने अपने पापों से उद्धार का उपाय भी पूछा| साधुओं ने उन्हें तमसा नदी के तट पर जाकर 'राम-राम' का जाप करने का परामर्श दिया| रत्नाकर ने वैसा ही किया परंतु वे राम शब्द को भूल जाने के कारण 'मरा-मरा' का जाप करते हुये अखंड तपस्या में लीन हो गये| तपस्या के फलस्वरूप उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुये|