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कुर॑आन - विकिपीडिया

कुर॑आन

विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से

क़ुरान (अरबी : क़ुर्'आन) इस्लाम धर्म की पवित्रतम किताब है और इस्लाम की नीव है । मुसल्मान मानते हैं कि इसे परमेश्वर (अल्लाह) ने फ़रिश्ते जिब्राएल द्वारा हज़रत मुहम्मद को सुनाया था । मुसल्मान मानते हैं कि क़ुरान ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च किताब है ।

क़ुरान
क़ुरान

अनुक्रम

[संपादित करें] क़ुरान परिचय

क़ुरआन के अनुवाद और तफसीर (टीका) पर उर्दू में इतना अधिक ‎काम किया जा चुका है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध्द तक यह लगने लगा ‎था कि अब इस पर और अधिक कार्य की ज़रूरत नहीं है। किन्तु सदी के ‎अंत तक क़ुरआन में युरोप और अमरीका में निरंतर हुई वैज्ञानिक खोजों के ‎बाद मुझे यह लगा कि क़ुरआन में एक नई तफ़सीर पर कार्य करना समय ‎के सदुपयोग के साथ ख़ैर व बरकत भी है और जनसाधारण तक अल्लाह के ‎पैग़ाम (ईश्वरीय संदेश) को पहुंचाने की ज़िम्मेदारी को पूर्ण करना भी है।

इस नई तफ़सीर (टीका) के लिए हिन्दी भाषा का चुनाव इसलिए ‎किया गया कि अभी तक हिन्दी में कोई मौलिक टीका तो दूर ठीक ठाक ‎अनुवाद भी नाममात्र उपलब्ध हैं। देश का एक बड़ा भू भाग हिन्दी भाषी है, ‎यहां केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि ग़ैर मुस्लिम भी इस अंतिम ईश्वरीय ‎ग्रंथ को समझना चाहते हैं।

वर्तमान में हिन्दी में कोई टीका तो उपलब्ध है ही नहीं और जो ‎अनुवाद हैं अधिकांश में केवल उर्दु लिपि को देवनागरी में लिखने तक ही ‎सीमित हैं। यह कारण थे जिन्होंने मुझ गुनाहगार को कठिन कार्य करने की ‎प्रेरणा दी। अपनी कमी का मुझे पूर्ण एहसास है और मेरा यह प्रयास लोगों ‎को क़ुरआन समझने में ज़रा भी मददगार हुआ तो मेरी खुशक़िस्मती होगी।

इस कार्य के लिए मैंने ऊर्दु तफसीरों में जो तफसीरी बहसें हैं उन्हें ‎हिन्दी में हाथ नहीं लगाया है, बल्कि प्रयास यह किया है कि अब तक जो ‎कार्य हुआ है उसका यथासंभव उपयोग हो और विभिन्न इस्लामी विद्वान, ‎धर्मशास्त्री तथा टीकाकार क्या कहते हैं, वह एक दृष्टि में सामने आ जाए। ‎अपनी ओर से बहुत ही मजबूरी में मैंने कुछ लिखा है, वह भी केवल ‎समझाने की दृष्टि से। मेरे समक्ष आम मुसलमान और आम ग़ैर मुस्लिम रहे ‎हैं। विद्वानों को दृष्टि में रखकर इस तफ़सीर में काम नहीं किया गया है।

यह एक वास्तविक्ता है कि क़ुरआन का कोई भी अनुवाद या टीका चाहे ‎कितनी ही मेहनत और रिसर्च के बाद लिखी गयी हो, उस महान अर्थ को ‎पूरी तरह से सामने नहीं ला सकती जो उसका हक़ है। अनुवाद तथा टीका ‎में जो मतलब वर्णित किया जाता है वह केवल अनुवादक की क़ुरआन ‎समझी को ही प्रस्तुत करता है इसलिए हर अनुवाद और टीका में कमी या ‎ग़लती हो सकती है। ‎

इस समय क़ुरआन के महान टीकाकार (मुफस्सिर) हज़रत इब्ने ‎अब्बास (रज़ि.) का यह कथन सामने रहे कि क़ुरआन का सही अर्थ आने ‎वाली नस्लें निश्चित करेंगी। इस कथन के समक्ष मैं भी नतमस्तक हुँ और ‎जहां तक आज विश्व पहुंचा है उससे कुछ क़ुरआनी भाग को समझाने में ‎मदद मिल सकती है। आगे के अर्थ को आने वाला समय ही निर्धारित करेगा।

[संपादित करें] अनुवाद

क़ुरआन के अनुवाद में दो तरीक़े प्रचालित हैं, एक शाब्दिक ‎अर्थ जिसमें प्रत्येक शब्द के नीचे उसका अर्थ लिख दिया जाता है। आंरभ में ‎जो अनुवाद किए गए उनमें यही तरीक़ा प्रचालित था और कई प्रसिध्द ‎अनुवाद इसी प्रकार के हैं। शाब्दिक अनुवाद के कारण हमें जो पढ़ने को ‎मिलता है उससे अरबी भाषा का अर्थ तो समझ में आ जाता है किन्तु उसे ‎पढ़ कर पढ़ने वालों की आत्मा में वह प्रभाव नहीं होता जिसके लिए क़ुरआन ‎प्रसिध्द है। कई बार तो इतनी उलझन होती है कि पढ़ने वाला सोचने लगता ‎है कि क्या यह वही पुस्तक है जिसके सुनने मात्र से आदमी का दिल ‎परिवर्तन हो जाता था। अरबी साहित्य का प्रभाव तो दूर उसमें ऊर्दु अदब की ‎चाशनी भी नहीं मिलती।


इस परेशानी के कारण ही बाद में यह तरीक़ा निकाला गया और ‎शाब्दिक अनुवाद के साथ उसी के नीचे एक अलंकृत अनुवाद भी लिखा जाने ‎लगा ताकि शाब्दिक अर्थ के बेजान वाक्यों के स्थान पर निरंतरता लिए एक ‎इबारत लिखी जाए। बचपन में पहली बार मुझे ऐसे ही क़ुरआन से पढ़ने को ‎मिला किन्तु इस से भी दिल पर वह प्रभाव उत्पन्न नहीं होता केवल पढ़ने ‎में आसानी हो जाती थी। ‎

क़ुरआन के प्रभाव के लिए हज़रत लबीद (रज़ि.) की वह घटना याद ‎कीजिए। अज्ञानता युग में क़ुरेश प्रति वर्ष कविता का मुक़ाबला करते थे और ‎उसमें जो श्रेष्ठ कविता होती उसके कवि को वर्ष के श्रेष्ठ कवि का ख़िताब ‎दिया जाता और उसकी कविता को सम्मान के रूप में काबा पर लटका दिया ‎जाता था। ऐसी सात कविताऐं काबे पर लटकाई गई। जिन्हे सबा मुअल्लेक़ा ‎‎(सात लटकाई कविताऐं) कहते हैं। इन में हज़रत लबीद (रज़ि.) की कविता ‎भी शामिल थी जो बाद में मुसलमान हो गए। हज़रत उमर (रज़ि.) ने उनसे ‎एक बार पूछा, या लबीद (रज़ि.) अब आप अब कविता नहीं कहते? हज़रत ‎लबीद (रज़ि.) ने उत्तर दिया क्या क़ुरआन के बाद? इस एक उत्तर से ही ‎क़ुरआन का अरबी साहित्य में स्थान का पता चल जाता है।

अनुवाद को पढ़ने में जो अरूचि उप्तन्न होती है उसका एक अन्य ‎कारण ‎ यह है कि क़ुरआन का अंदाज़ लिखित नहीं बाल्कि भाषण का हैं। 23 वर्षों ‎तक क़ुरआन अवतरित होता रहा तो एक भाषण की तरह था नाकि पुस्तक ‎रूप में। समय और परिस्थिति के अनुसार क़ुरआन अवतरित होता और इस ‎ईश्वरीय भाषण को हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) जब लोगों के समक्ष रखते तो ‎वह दिलों को झकझोर कर रख देता। बाद में यही पुस्तक रूप में एकत्रित ‎किया गया। एक कारण अनुवाद के प्रभावहीन होने का यह भी है कि इसमें ‎जो घटनाऐं, इतिहास वर्णित किया गया है उसका क्रम समयानुसार नहीं है। ‎एक वाक्य में एक घटना वर्णित होती है। अगले वाक्य में अगली घटना ‎उसके 100 वर्ष पूर्व की आ जाती है।

‎उस समय जो लोग थे वे इन एतिहासिक घटनाओं से परिचित थे और ‎भाषण में यह सब प्रभावी रहता है, किन्तु पुस्तक रूप में सैकड़ों वर्ष के ‎पश्चात उसका अनुवाद हमें वैसा प्रभाव नहीं देता जैसा उस समय था।

इस परेशानी को दूर करने के लिए टीका (तफ़सीर) का सहारा लेना ‎पड़ता है, जो उस पूरे घटना क्रम और सही अर्थ को सामने ले आये। प्रस्तुत ‎टीका में मैंने अनुवाद में शाब्दिक अनुवाद छोड़ कर निरंतरता वाले अनुवाद ‎को लिया है। ढ़ेर सारे अनुवादों में से हर आयत के लिए आसान अनुवाद को ‎चुना है। इसके लिए सभी प्रसिध्द अनुवादों का सहारा लिया गया है। अपनी ‎ओर से मैंने एक शब्द भी नहीं लिखा है। किन्तु वैचारिक आधार पर भी ‎किसी अनुवाद को नहीं चुना है और ना छोड़ा है। इसलिए इसमें आपको ‎बरेली, देवबंदी और सारी विचारधाराओं के अनुवाद एक साथ मिल जाऐंगे। ‎इस तरह टीका में यथासंभव प्रयास किया है कि पूर्व में प्रकाशित सभी ‎तफसीरों का निचोड़ रख दिया जाए। पूरा प्रयास यह किया गया है कि ‎क़ुरआन का अधिकतम प्रभाव प्रस्तुत हो जाए। ‎

वे आयतें जो वैज्ञानिक तथ्यों पर बहस करती हैं और इससे पूर्व की ‎तफ़सीरों में उन पर एक शब्द भी नहीं है। या फिर उस समय तक चूंकि ‎वैज्ञानिक तथ्य पूर्ण रूप से सामने नहीं आए थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया ‎गया था या शब्दों के अनुसार समझाने का प्रयास किया गया था, उन पर ‎आधुनिक ज्ञान के प्रकाश में मैंने विस्तृत विवरण दिए हैं। वैज्ञानिक तथ्यों ‎मे केवल उन्हें ही लिया गया है जो पूर्ण रूप से सिध्द हो चुके हैं। जो अभी ‎केवल वैचारिक धरातल पर हैं उन पर विस्तार से कहीं भी नहीं लिखा गया ‎है।

‎ क़ुरआन की 6666 आयतों में से (कुछ के अनुसार 6238) अभी तक ‎‎1000 आयतें वैज्ञानिक तथ्यों पर बहस करती हैं, और समय गुज़रने के ‎साथ जैसे जैसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ेगा ढेर सारी आयतों का वैज्ञानिक अर्थ ‎स्पष्ट होगा। इस मामले में यूरोप तथा अमरीका में इतनी तेज़ी से काम हो ‎रहा है कि हो सकता है कुछ वर्षों में इसी पुस्तक में नए तथ्यों को जोड़ना ‎पड़े। मेरा यह प्रयास कितना सफल है इसके लिए जन साधारण के अतिरिक्त ‎मैं विद्वानों की प्रतिक्रिया की भी प्रतीक्षा करूंगा। जहां ग़लती हो उसे चिन्हित ‎करने का स्वागत है, ताकि आगे उस में सुधार किया जाए। ‎

ऐतिहासिक रूप से यह सिध्द हो चुका है कि इस धरती पर मौजूद हर ‎क़ुरआन की प्रति वही मूल प्रति की कापी है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ‎पर अवतरित हुई थी। जिसे इस पर यक़ीन न हो वह कभी भी इस की जांच ‎कर सकता है। धरती के किसी भी भू भाग से क़ुरआन लीजिए और उसे ‎प्राचीन युग की उन प्रतियों से मिला कर जांच कर लीजिए जो अब तक ‎सुरक्षित रखी हैं। तृतीय ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि.) ने अपने सत्ता समय ‎में हज़रत सि¬द्दीक़े अकबर (रज़ि.) द्वारा संकलित क़ुरआन की 9 प्रतियां तैयार ‎करके कई देशों में भेजी थी उनमें से दो क़ुरआन की प्रतियां अभी भी पूर्ण ‎सुरक्षित हैं। एक ताशक़ंद में और दूसरी तुर्की में मौजूद है। यह 1500 वर्ष ‎पुरानी हैं, इसकी भी जांच वैज्ञानिक रूप से काराई जा सकती है। फिर यह ‎भी एतिहासिक रूप से प्रमाणित है कि इस पुस्तक में एक मात्रा का भी ‎अंतर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के समय से अब तक नहीं आया है।

इस पूर्ण विश्वास के बाद अब यह जान लिजिए कि यदि आम किताबों ‎की तरह इसे पढ़ा जाए तो यह उसके ठीक विपरित है। आम पुस्तकों में क्रम ‎से सब कुछ होता है। हर एक बात को लेकर एक ही स्थान पर बहस की ‎जाती है। जब कि क़ुरआन में ऐसा कुछ नहीं हैं। यहां विज्ञान, धार्मिक ‎आदेश, घटना, नैतिकता, इतिहास, जो भी है वह एक के बाद एक कहीं भी ‎नहीं है। एक ही बात कई कई बार आ जाती है। इन सब में कोई क्रमबध्दता ‎नहीं है। समय क्रम नहीं है। आदेश क्रम नहीं है। क़ुरआन को पुस्तक रूप में ‎ठीक उस तरह संकलित नहीं किया गया है जैसा अवतरण हुआ था। इसलिए ‎अवतरण की क्रमबध्दता भी नहीं है। ‎

इस पुस्तक में सब कुछ है लेकिन वैसा नहीं है, जैसा हम जानते हैं। ‎विज्ञान है परन्तु विज्ञान के तरीक़े पर नहीं, इतिहास है किन्तु एतिहासिक ‎तरीक़े पर नहीं। राजनीति है किन्तु राजनीति विज्ञान के तरीक़े पर नहीं। जो ‎भी है वह आपके अब तक के प्राप्त ज्ञान के ठीक विपरित है। इसके हर शब्द ‎में एक सागर है। जितना संक्षिप्तिकरण क़ुरआन में है उससे अधिक संभव ‎नहीं। बार बार यह ध्यान रखिए कि यह उस रचनाकार की रचना है जो इस ‎विस्तृत संसार का रचियता है। यह ठीक उस महान रचनाकार की महानता ‎के अनुसार है। एक बार क़ुरआन यदि अपने अर्थ आप पर खोल दे तो संसार ‎का हर ज्ञान आपके लिए खुल जाएगा।

किसी पुस्तक को अच्छी तरह समझने के लिए उसके मूल विषय को ‎समझना आवश्यक है। आम पुस्तकों में आरंभ से ही मूल विषय की हमें ‎जानकारी होती है। किन्तु क़ुरआन को जानने के लिए आम पुस्तकों का यह ‎तरीक़ा आपको छोड़ना होगा। क़ुरआन की प्रत्येक आयात एक अलग विषय ‎है। उसमें इतिहास, धर्म, विज्ञान, इतने संक्षेप में मौजूद है कि धरती के ‎किसी भी विषय पर एक पूरी पुस्तक लिखी जाए इतना ज्ञान हो सकता है। ‎इसलिए उसे ठीक ढंग से समझना ज़रूरी है। फिर भी क़ुरआन का एक मूल ‎विषय है, जो है मनुष्य। जो कुछ है वह मनुष्य की भलाई के लिए है, उसे ‎धरती पर जीवन यापन करने का वह तरीक़ा सिखाने के लिए है, जो इस ‎जहान को पैदा करने वाले को पसंद है। आप यह तरीक़ा जानना चाहते हैं। ‎इस मनुष्य और उसके रचनाकार से परिचय प्राप्त करना चाहते हैं तो ‎क़ुरआन आपका स्वागत करेगा। अपने अर्थों का द्वार आप पर खोल देगा और ‎यदि आप इस दृष्टि से अलग हट कर इसे पढ़ेंगे तो कुछ ही समय में आपको ‎घबराहट होना शुरू हो जाएगी। कोई अर्थ समझ में नहीं आएगा।

किसी पुस्तक को अच्छी तरह समझने के लिए उसके मूल विषय को ‎समझना आवश्यक है। आम पुस्तकों में आरंभ से ही मूल विषय की हमें ‎जानकारी होती है। किन्तु क़ुरआन को जानने के लिए आम पुस्तकों का यह ‎तरीक़ा आपको छोड़ना होगा। क़ुरआन की प्रत्येक आयात एक अलग विषय ‎है। उसमें इतिहास, धर्म, विज्ञान, इतने संक्षेप में मौजूद है कि धरती के ‎किसी भी विषय पर एक पूरी पुस्तक लिखी जाए इतना ज्ञान हो सकता है। ‎इसलिए उसे ठीक ढंग से समझना ज़रूरी है। फिर भी क़ुरआन का एक मूल ‎विषय है, जो है मनुष्य। जो कुछ है वह मनुष्य की भलाई के लिए है, उसे ‎धरती पर जीवन यापन करने का वह तरीक़ा सिखाने के लिए है, जो इस ‎जहान को पैदा करने वाले को पसंद है। आप यह तरीक़ा जानना चाहते हैं। ‎इस मनुष्य और उसके रचनाकार से परिचय प्राप्त करना चाहते हैं तो ‎क़ुरआन आपका स्वागत करेगा। अपने अर्थों का द्वार आप पर खोल देगा और ‎यदि आप इस दृष्टि से अलग हट कर इसे पढ़ेंगे तो कुछ ही समय में आपको ‎घबराहट होना शुरू हो जाएगी। कोई अर्थ समझ में नहीं आएगा।

[संपादित करें] मनुष्य का स्थान

इस आरंभिक विचार के बाद यह समझ लें कि ‎क़ुरआन के अनुसार इस धरती पर मनुष्य की क्या स्थिति है?‎

अल्लाह ने इस धरती पर मनुष्य को अपना ख़लीफ़ा (प्रतिहारी) ‎बनाकर भेजा है। भेजने से पूर्व उसने हर व्यक्ति को ठीक ठीक समझा दिया ‎था कि वे थोड़े समय के लिए धरती पर जा रहे हैं, उसके बाद उन्हें उसके ‎पास लौट कर आना है। जहाँ उसे अपने उन कार्यों का अच्छा या बुरा बदला ‎मिलेगा जो उसने धरती पर किए। ‎

इस धरती पर मनुष्य को कार्य करने की स्वतंत्रता है। धरती के ‎साधनों को उपयोग करने की छूट है। अच्छे और बुरे कार्य को करने पर उसे ‎तक्ताल कोई रोक या इनाम नहीं है। किन्तु इस स्वतंत्रता के साथ ईश्वर ने ‎धरती पर बसे मनुष्यों को ठीक उस रूप में जीवन गुज़ारने के लिए ईश्वरीय ‎आदेशों के पहुंचाने का प्रबंध किया और धरती के हर भाग में उसने अपने ‎दूत (पैग़म्बर) भेजे, जिन्होंने मनुष्यों तक ईश्वर का संदेश भेजा। कहा जाता ‎है कि ऐसे ईशदूतों की संख्या 1,84,000 के क़रीब रही। इस सिलसिले की ‎अंतिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) थे। आप (सल्ल.) के बाद अब कोई ‎दूत नहीं आएगा किन्तु हज़रत ईसा (अलै.) अपने जीवन के शेष वर्ष इस ‎धरती पर पुन: गुज़ारेंगे। ईश्वर की अंतिम पुस्तक आपके हाथ में है कोई ‎और ईश्वरीय पुस्तक अब नहीं आएगी।

हज़ारों वर्षों तक निरंतर आने वाले पैग़म्बरों का चाहे वे धरती के ‎किसी भी भाग में अवतरित हुए हों, उनका संदेश एक था, उनका मिशन एक ‎था, ईश्वरीय आदेश के अनुसार मनुष्यों को जीना सिखाना। हज़ारों वर्षों का ‎समय बीतने के कारण ईश्वरीय आदेशों में मनुष्य अपने विचार, अपनी ‎सुविधा जोड़ कर नया धर्म बना लेते और मूल धर्म को विकृत कर एक ‎आडम्बर खड़ा कर देते और कई बार तो ईश्वरीय आदेशों के विपरित कार्य ‎करते। क्यों कि हर प्रभावी व्यक्ति अपनी शक्ति के आगे सब को नतमस्तक ‎देखना चाहता था।

आख़िर अंतिम नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) क़ुरआन के साथ इस ‎धरती पर आए और क़ुरआन ईश्वर के इस चैलेंज के साथ आया कि इसकी ‎रक्षा स्वयं ईश्वर करेगा। 1500 वर्ष का लम्बा समय यह बताता है कि ‎क़ुरआन विरोधियों के सारे प्रयासों के बाद भी क़ुरआन के एक शब्द में भी ‎परिवर्तन संभव नहीं हो सका है। यह पुस्तक अपने मूल स्वरूप में प्रलय ‎तक रहेगी। इसके साथ क़ुरआन का यह चैलेंज भी अपने स्थान पर अभी ‎तक क़ायम है कि जो इसे ईश्वरीय ग्रंथ नहीं मानते हों तो वे इस जैसी पूरी ‎पुस्तक नहीं उसका एक छोटा भाग ही बना कर दिखा दें।

क़ुरआन के इस रूप को जानने के बाद यह जान लीजिए कि यह ‎पुस्तक रूप में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को नहीं दी गई कि इसे पढ़कर ‎लोगों को सुना दें और छाप कर हर घर में रख दें। बल्कि समय समय पर ‎‎23 वर्षों तक आवश्यकता अनुसार यह पुस्तक अवतरित हुई और आप ‎‎(सल्ल.) ने ईश्वर की मर्ज़ी से उसके आदेशों के अनुसार धरती पर वह ‎समाज बनाया जैसा ईश्वर का आदेश था।

यहाँ मैं एच.जी.वेल्स के विचार रखना चाहुंगा। इस पश्चिमी विचारक के ‎अनुसार इस धरती पर प्रवचन तो बहुत दिए गए किन्तु उन प्रवचनों के ‎आधार पर एक समाज की रचना पहली बार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने ‎करके दिखाई। यहाँ यह जानना रूचिकर होगा कि वेल्स इस्लाम प्रेमी नहीं ‎बल्कि इस्लाम विरोधी है और उसकी पुस्तकें इस्लाम विरोध में प्रकाशित हुई ‎हैं।

आप चाहे क़ुरआन पर इमान न रखते हों किन्तु इस पुस्तक को ‎समझना चाहते हों तो खुले दिल से इसे पढ़ना शुरू करें। यदि किसी पूर्व ‎ग्रंथी को साथ में लेकर या कोई ख़राबी ढूंढने के लिए क़ुरआन पढ़ेंगे तो ‎आपको उसके सही अर्थ की हवा भी नहीं लगेगी।

एक बार का अध्ययन बहुत सरसरी होगा। पूर्ण जानकारी के लिए ‎क़ुरआन बार बार पढ़ें। आशा है आपके हर प्रश्न का उत्तर क़ुरआन के पास ‎होगा। यह स्पष्ट हो जाएगा कि ईश्वर इस धरती पर कैसे लोगों को पसंद ‎करता है और कैसे जीवन यापन को न पसंद करता है। गूढ़ वैज्ञानिक तथ्य ‎जो अब तक हमें ज्ञात हैं, क़ुरआन में छुपे हैं और ऐसे सैकड़ों स्थान है जहां ‎लगता है कि मनुष्य ज्ञान अभी उस हक़ीक़त तक नहीं पहुंचा है। बार बार ‎क़ुरआन आपको विचार करने की दावत देता है। धरती और आकाश के ‎रहस्यों को जानने का आमंत्रण देता हैं।

एक उलझन और सामने आती है। कुरआन के दावे के अनुसार वह ‎पूरी धरती के मनुष्यों के लिए और शेष समय के लिए है, किन्तु उसके ‎संबोधित उस समय के अरब नज़र आते हैं। सरसरी तौर पर यही लगता है ‎कि क़ुरआन उस समय के अरबों के लिए ही अवतरित किया गया था किन्तु ‎आप जब भी किसी ऐसे स्थान पर पहुंचें जब यह लगे कि यह बात केवल ‎एक खास काल तथा देश के लिए है, तब वहां रूक कर विचार करें या इसे ‎नोट करके बाद में इस पर विचार करें तो आप को हर बार लगेगा कि ‎मनुष्य हर युग और हर भू भाग का एक है और उस पर वह बात ठीक वैसी ‎ही लागू होती है, जैसी उस समय के अरबों पर लागू होती थी।

[संपादित करें] मुसलमानों के लिए . . . .‎

मुसलमानों के लिए क़ुरआन के संबंध में बड़ी बड़ी किताबें लिखी गई ‎हैं और लिखी जा सकती हैं। यहां उ¬द्देश्य क़ुरआन का एक संक्षिप्त परिचय ‎और उसके उम्मत पर क्या हक़ हैं, यहा स्पष्ट करना है।

हज़रत अली (रज़ि.) से रिवायत की गई एक हदीस है। हज़रत हारिस ‎फ़रमाते हैं कि मैं मस्जिद में दाखिल हुआ तो देखा कि कुछ लोग कुछ ‎समस्याओं में झगड़ा कर रहे हैं। मैं हज़रत अली (रज़ि.) के पास गया और ‎उन्हें इस बात की सूचना दी। हज़रत अली (रज़ि.) ने फरमाया- क्या यह ‎बातें होने लगीं? मैंने कहा, जी हां। हज़रत अली (रज़ि.) ने फरमाया- याद ‎रखो मैंने रसूल अल्लाह (सल्ल.) से सुना है। आप (सल्ल.) ने फरमाया- ‎खबरदार रहो निकट ही एक बड़ा फ़ितना सर उठाएगा मैंने अर्ज़ किया- इस ‎फ़ितने में निजात का ज़रिया क्या होगा?

  • फरमाया-अल्लाह की किताब।
  • इसमें तुमसे पूर्व गुज़रे हुए लोगों के हालात हैं।
  • तुम से बाद होने वाली बातों की सूचना है।
  • ‎तुम्हारे आपस के मामलात का निर्णय है।‎
  • ‎यह एक दो टूक बात हैं, हंसी दिल्लगी की नहीं है।
  • ‎जो सरकश इसे छोड़ेगा, अल्लाह उसकी कमर तोड़ेगा।
  • ‎और जो कोई इसे छोड़ कर किसी और बात को अपनी हिदायत का ‎ज़रिया बनाएगा। अल्लाह उसे गुमराह कर देगा।
  • ‎ख़ुदा की मज़बूत रस्सी यही है।
  • ‎यही हिकमतों से भरी हुई पुन: स्मरण (याददेहानी) है, यही सीधा मार्ग ‎है।
  • ‎इसके होते इच्छाऐं गुमराह नहीं करती हैं।‎
  • ‎और ना ज़बानें लड़खड़ाती हैं।
  • ‎ज्ञानवान का दिल इससे कभी नहीं भरता। ‎
  • ‎इसे बार बार दोहराने से उसकी ताज़गी नहीं जाती (यह कभी पुराना नहीं ‎होता)।
  • ‎इसकी अजीब (विचित्र) बातें कभी समाप्त नहीं होंगी।
  • ‎यह वही है जिसे सुनते ही जिन्न पुकार उठे थे, निसंदेह हमने ‎अजीबोग़रीब क़ुरआन सुना, जो हिदायत की ओर मार्गदर्शन करता है, ‎अत: हम इस पर ईमान लाऐ हैं।
  • ‎जिसने इसकी सनद पर हां कहा- सच कहा।‎
  • ‎जिसने इस पर अमल किया- दर्जा पाएगा।‎
  • ‎जिसने इसके आधार पर निर्णय किया उसने इंसाफ किया।
  • ‎जिसने इसकी ओर दावत दी, उसने सीधे मार्ग की ओर राहनुमाई की।

क़ुरआन का सारा निचोड़ इस एक हदीस में आ जाता है। क़ुरआन ‎धरती पर अल्लाह की अंतिम पुस्तक उसकी ख्याति के अनुरूप है। यह ‎अत्यंत आसान है और यह बहुत कठिन भी है। आसान यह तब है जब इसे ‎याद करने (तज़क्कुर) के लिए पढ़ा जाए। यदि आप की नियत में खोट नहीं ‎है और क़ुरआन से हिदायत चाहते हैं तो अल्लाह ने इस किताब को आसान ‎बना दिया है। समझने और याद करने के लिए यह विश्व की सबसे आसान ‎पुस्तक है। खुद क़ुरआन मे है 'और हमने क़ुरआन को समझने के लिए ‎आसान कर दिया है, तो कोई है कि सोचे और समझे?' (सूर: अल क़मर:17)‎

दूसरी ओर दूरबीनी (तदब्बुर) की दृष्टि से यह विश्व की कठिनतम ‎पुस्तक है पूरी पूरी ज़िंदगी खपा देने के बाद भी इसकी गहराई नापना संभव ‎नहीं। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह एक समुद्र है। सदियां बीत गईं और ‎क़ुरआन का चमत्कार अब भी क़ायम है। और सदियां बीत जाऐंगी किन्तु ‎क़ुरआन का चमत्कार कभी समाप्त नहीं होगा।

केवल हिदायत पाने के लिए आसान तरीक़ा यह है कि अटल आयतों ‎‎(मुहकमात) पर ध्यान रहे और आयतों (मुतशाबिहात) पर ईमान हो कि यह ‎भी अल्लाह की ओर से हैं। दुनिया निरंतर प्रगति कर रही है, मानव ज्ञान ‎निरंतर बढ़ रहा है, जो क़ुरआन में कल मुतशाबिहात था आज वह स्पष्ट हो ‎चुका है, और कल उसके कुछ ओर भाग स्पष्ट होंगे।

इसी तरह ज्ञानार्जन के लिए भी दो विभिन्न तरीक़े अपनाना होंगे। ‎आदेशों के लिहाज़ से क़ुरआन में विचार करने वाले को पीछे की ओर यात्रा ‎करनी होगी। क़ुरआन के आदेश का अर्थ धर्म शास्त्रियों (फ़ुह्लाँहा), विद्वानों ‎‎(आलिमों) ने क्या लिया, तबाताबईन (वे लोग जिन्होने ताबईन को देखा। ), ‎ताबईन (वे लोग जिन्होने सहाबा (हज़रत मुहम्मद (सल्ल.)) के साथियों को ‎देखा। ) और सहाबा ने इसका क्या अर्थ लिया। यहां तक कि ख़ुद को हज़रत ‎मुहम्मद (सल्ल.) के क़दमों तक पहुंचा दे कि ख़ुद साहबे क़ुरआन का इस ‎बारे में क्या आदेश था?‎

दूसरी ओर ज्ञानविज्ञान के लिहाज़ से आगे और निरंतर आगे विचार ‎करना होगा। समय के साथ ही नहीं उससे आगे चला जाए। मनुष्य के ज्ञान ‎की सतह निरंतर ऊंची होती जा रही है। क़ुरआन में विज्ञान का सर्वोच्च स्तर ‎है उस पर विचार कर नए अविष्कार, खोज और जो वैज्ञानिक तथ्य हैं उन ‎पर कार्य किया जा सकता है।

[संपादित करें] मौअजज़ा

मौअजज़ा उस चमत्कार को कहते हैं जो किसी नबी या ‎रसूल के हाथ पर हो और मानव शक्ति से परे हो, जिस पर मानव बुध्दि ‎हैरान हो जाए।‎

हर युग में जब भी कोई रसूल (ईश दूत) ईश्वरीय आदेशों को मानव ‎तक पहुँचता, तब उसे अल्लाह की ओर से चमत्कार दिए जाते थे। हज़रत ‎मूसा (अलै.) को असा (हाथ की लकड़ी) दी गई, जिससे कई चमत्कार ‎दिखाए गये। हज़रत ईसा (अलै.) को मुर्दों को जीवित करना, बीमारों को ‎ठीक करने का मौअजज़ा दिया गया। किसी भी नबी का असल मौअजज़ा वह ‎है जिसे वह दावे के साथ पेश करे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के हाथ पर ‎सैकड़ों मौअजज़े वर्णित हैं, किन्तु जो दावे के साथ पेश किया गया और जो ‎आज भी चमत्कार के रूप में विश्व के समक्ष मौजूद है, वह है क़ुरआन ‎जिसका यह चेलेंज़ दुनिया के समक्ष अनुत्तरित है कि इसके एक भाग जैसा ‎ही बना कर दिखा दिया जाए। यह दावा क़ुरआन में कई स्थान पर किया ‎गया। ‎

क़ुरआन पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगा, इस दावे को 1500 वर्ष बीत गए ‎और क़ुरआन सुरक्षित है, पूर्ण सुरक्षित है। यह सिध्द हो चुका है, जो एक ‎चमत्कार है।‎

क़ुरआन विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है, और उसके वैज्ञानिक ‎वर्णनों के आगे वैज्ञानिक नतमस्तक हैं। यह भी एक चमत्कार है। 1500 वर्ष ‎पूर्व अरब के रेगिस्तान में एक अनपढ़ व्यक्ति ने ऐसी पुस्तक प्रस्तुत की जो ‎बीसवीं सदी के सारे साधनों के सामने अपनी सत्यता ज़ाहिर कर रही है। यह ‎कार्य क़ुरआन के अतिरिक्त किसी अन्य पुस्तक ने किया हो तो विश्व उसका ‎नाम जानना चाहेगा। क़ुरआन का यह चमत्कारिक रूप आज हमारे लिए है ‎और हो सकता है आगे आने वाले समय के लिए उसका कोई और ‎चमत्कारिक रूप सामने आए।

जिस समय क़ुरआन अवतारित हुआ उस युग में उसका मुख्य ‎चमत्कार उसका वैज्ञानिक आधार नहीं था। उस युग में क़ुरआन का ‎चमत्कार था उसकी भाषा, साहित्य, वाग्मिता, जिसने अपने समय के अरबों ‎के भाषा ज्ञान को झकझोर दिया था। यहां स्पष्ट करना उचित होगा कि उस ‎समय के अरबों को अपने भाषा ज्ञान पर इतना गर्व था कि वे शेष विश्व के ‎लोगों को अजमी (गूंगा) कहते थे। क़ुरआन की शैली के कारण अरब के ‎भाषा ज्ञानियों ने अपने घुटने टेक दिए।

[संपादित करें] इंकलाबी पुस्तक

क़ुरआन ऐसी पुस्तक है जिसके आधार पर एक क्रांति ‎लाई गई। रेगिस्तान के ऐसे अनपढ़ लोगों को जिनका विश्व के नक्शे में उस ‎समय कोई महत्व नहीं था। क़ुरआन की शिक्षाओं के कारण, उसके ‎प्रस्तुतकर्ता की ट्रेनिंग ने उन्हे उस समय की महान शाक्तियों के समक्ष ला ‎खड़ा किया और एक ऐसे क़ुरआनी समाज की रचना मात्र 23 वर्षों में की ‎गई जिसका उत्तर विश्व कभी नहीं दे सकता।

आज भी दुनिया मानती है कि क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ‎ने एक आदर्श समाज की रचना की। इस दृष्टि से यदि क़ुरआन का अध्ययन ‎किया जाए तो आपको उसके साथ क़दम मिला कर चलना होगा। उसकी ‎शिक्षा पर अमल करें। केवल निजी जीवन में ही नहीं बल्कि सामाजिक, ‎राजनैतिक और क़ानूनी क्षैत्रों में, तब आपके समक्ष वे सारे चरित्र जो क़ुरआन ‎में वर्णित हैं, जीवित नज़र आऐंगे। वे सारी कठिनाई और वे सारी परेशानी ‎सामने आजाऐंगी। तन, मन, धन, से जो गिरोह इस कार्य के लिए उठे तो ‎क़ुरआन की हिदायत हर मोड़ पर उसका मार्ग दर्शन करेगी।

[संपादित करें] अल्लाह की रस्सी

क़ुरआन अल्लाह की रस्सी है। इस बारे में तिरमिज़ी ‎में हज़रत ज़ैद बिन अरक़म (रज़ि.) द्वारा वर्णित हदीस है जिसमें कहा गया ‎है कि क़ुरआन अल्लाह की रस्सी है जो ज़मीन से आसामान तक तनी है। ‎यह शब्द हुज़ूर (सल्ल.) के है जिन्हे हज़रत ज़ैद (रज़ि.) ने वर्णित किया है। ‎

तबरानी में वर्णित एक और हदीस है जिसमें कहा गया है कि एक ‎दिन हुज़ूर (सल्ल.) मस्जिद में तशरीफ लाए तो देखा कुछ लोग एक कोने ‎में बैठे क़ुरआन पढ़ रहे हैं और एक दूसरे को समझा रहे हैं। यह देख कर ‎आप (सल्ल.) के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। आप (सल्ल.) सहाबा के ‎उस गुट के पास पहुंचे और उन से कहा- क्या तुम मानते हो कि अल्लाह के ‎अतिरिक्त कोई अन्य माबूद (ईश) नहीं है, मैं अल्लाह का रसूल हुँ और ‎क़ुरआन अल्लाह की किताब है? सहाबा ने कहा, या रसूल अल्लाह हम ‎गवाही देते हैं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई माबूद नहीं, आप अल्लाह के ‎रसूल हैं और क़ुरआन अल्लाह की किताब है। तब आपने कहा, खुशियां ‎मानाओ कि क़ुरआन अल्लाह की वह रस्सी है जिसका एक सिरा‎ उसके हाथ में है और दूसरा तुम्हारे हाथ में। ‎

क़ुरआन अल्लाह की रस्सी इस अर्थ में भी है कि यह मुसलमानों को ‎आपस में बांध कर रखता है। उनमें विचारों की एकता, मत भिन्नता के ‎समय अल्लाह के आदेशों से निर्णय और जीवन के लिए एक आदर्श नमूना ‎प्रस्तुत करता है। ‎

ख़ुद क़ुरआन में है कि अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकड़ लो। ‎क़ुरआन के मूल आधार पर मुसलमानों के किसी गुट में कोई टकराव नहीं ‎है।

क़ुरआन का हक़ क़ुरआन के हर मुसलमान पर पांच हक़ हैं, जो उसे ‎अपनी शाक्ति और सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण करना चाहिए।

  1. ‎ईमान: हर मुसलमान क़ुरआन पर ईमान रखे जैसा कि ईमान ‎का हक़ है अर्थात केवल ज़बान से इक़रार नहीं हो, दिल से यक़ीन रखे कि ‎यह अल्लाह की किताब है।
  2. ‎तिलावत: क़ुरआन को हर मुसलमान निरंतर पढ़े जैसा कि पढ़ने ‎का हक़ है अर्थात उसे समझ कर पढ़े। पढ़ने के लिए तिलावत का शब्द खुद ‎क़ुरआन ने बताया है, जिसका अरबी में शाब्दिक अर्थ है To Follow (पीछा ‎करना)। पढ़ कर क़ुरआन पर अमल करना (उसके पीछे चलना) यही ‎तिलावत का सही हक़ है। खुद क़ुरआन कहता है और वे इसे पढ़ने के हक़ ‎के साथ पढ़ते हैं। (2:121) इसका विद्वानों ने यही अर्थ लिया है कि ध्यान से ‎पढ़ना, उसके आदेशों में कोई फेर बदल नहीं करना, जो उसमें लिखा है उसे ‎लोगों से छुपाना नहीं। जो समझ में नहीं आए वह विद्वानों से जानना। पढ़ने ‎के हक़ में ऐसी समस्त बातों का समावेश है।
  3. ‎समझना: क़ुरआन का तीसरा हक़ हर मुसलमान पर है, उसको ‎पढ़ने के साथ समझना और साथ ही उस पर विचार ग़ौर व फिक्र करना। ‎खुद क़ुरआन ने समझने और उसमें ग़ौर करने की दावत मुसलमानों को दी ‎है।
  4. अमल: क़ुरआन को केवल पढ़ना और समझना ही नहीं। ‎मुसलमान पर उसका हक़ है कि वह उस पर अमल भी करे। व्यक्तिगत रूप ‎में और सामजिक रूप मे भी। व्यक्तिगत मामले, क़ानून, राजनिति, आपसी ‎मामलात, व्यापार सारे मामले क़ुरआन के प्रकाश में हल किए जाऐं। ‎
  5. प्रसार: क़ुरआन का पांचवां हक़ यह है कि उसे दूसरे लोगों तक ‎पहुंचाया जाए। हुज़ूर (सल्ल.) का कथन है कि चाहे एक आयत ही क्यों ना ‎हो। हर मुसलमान पर क़ुरआन के प्रसार में अपनी सार्मथ्य के अनुसार दूसरों ‎तक पहुंचाना अनिवार्य है।

[संपादित करें] समझने के लिए

क़ुरआन को समझने के लिए उसके अवतीर्ण ‎‎(नुज़ूल) की पृष्ठ भूमि जानना ज़रूरी है। यह इस तरह की पुस्तक नहीं है कि ‎इसे पूरा लिख कर पैग़म्बर (सल्ल.) को देकर कह दिया गया हो कि जाओ ‎इसकी ओर लोगों को बुलाओ। बल्कि क़ुरआन थोड़ा थोड़ा उस क्रांति के ‎अवसर पर जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने अरब में आरंभ की थी, ‎आवश्यकता के अनुसार अवतरित किया गया। आरंभ से जैसे ही क़ुरआन का ‎कुछ भाग अवतरित होता आप (सल्ल.) उसे लिखवा देते और यह भी बता ‎देते कि यह किसके साथ पढ़ा जाएगा।

अवतीर्ण के क्रम से विद्वानों ने क़ुरआन को दो भागों में बांटा है। एक ‎मक्की भाग, दूसरा मदनी भाग। आरंभ में मक्के में छोटी छोटी सूरतें ‎नाज़िल हुईं। उनकी भाषा श्रेष्ठ, प्रभावी और अरबों की पसंद के अनुसार श्रेष्ठ ‎साहित्यिक दर्जे वाली थी। उसके बोल दिलों में उतर जाते थे। उसके दैविय ‎संगीत (Divine Music) से कान उसको सुनने में लग जाते और उसके दैविय ‎प्रकाश (Divine Light) से लोग आकर्षित हो जाते या घबरा जाते। इसमें सृष्टि ‎के वे नियम वर्णित किए गए जिन पर सदियों के बाद अब भी मानव ‎आश्चर्य चकित है, किन्तु इसके लिए सारे उदाहरण स्थानीय थे। उन्हीं के ‎इतिहास, उन्ही का माहौल। ऐसा पांच वर्ष तक चलता रहा।

इसके बाद मक्के की राजनैतिक तथा आर्थिक सत्ता पर क़ब्ज़े वाले ‎लोगों ने अपने लिए इस खतरे को भांप का ज़ुल्म व ज्यादती का वह तांडव ‎किया कि मुसलमानों की जो थोड़ी संख्या थी उसमें भी कई लोगों को घरबार ‎छोड़ कर हब्शा (इथोपिया) जाना पड़ा। खुद नबी (सल्ल.) को एक घाटी में ‎सारे परिवारजनों के साथ क़ैद रहना पड़ा और अंत में मक्का छोड़ कर ‎मदीना जाना पड़ा।

मुसलमानों पर यह बड़ा सख्त समय था और अल्लाह ने इस समय ‎जो क़ुरआन नाज़िल किया उसमें तलवार की काट और बाढ़ की तेज़ी थी। ‎जिसने पूरा क्षैत्र हिला कर रख दिया। मुसलमानों के लिए तसल्ली और इस ‎कठिन समय में की जाने वाली प्रार्थनाऐं हैं जो इस आठ वर्ष के क़ुरआन का ‎मुख्य भाग रहीं।

मक्की दौर के तेरह वर्ष बाद मदीने में मुसलमानों को एक केन्द्र प्राप्त ‎हो गया। जहाँ सारे ईमान लाने वालों को एकत्रित कर तीसरे दौर का ‎अवतीर्ण शुरू हुआ। यहाँ मुसलमानों का दो नए प्रकार के लोगों से परिचय ‎हुआ। प्रथम यहूदी जो यहाँ सदियों से आबाद थे और अपने धार्मिक विश्वास ‎के अनुसार अंतिम नबी (सल्ल.) की प्रतिक्षा कर रहे थे। किन्तु अंतिम नबी ‎‎(सल्ल.) को उन्होंने अपने अतिरिक्त दूसरी क़ौम में देखा तो उत्पात मचा ‎दिया। क़ुरआन में इस दौर में अहले किताब (ईश्वरीय ग्रंथों को मानने वाले ‎विषेश कर यहूदी तथा ईसाई) पर क़ुरआन में सख्त टिप्पणियाँ की गईं। इसी ‎युग में कुटाचारियों (मुनाफिक़ों) का एक गुट मुसलमानों में पैदा हो गया जो ‎मुसलमान होने का नाटक करते और विरोधियों से मिले रहते थे।

यहीं मुसलमानों को सशस्त्र संघर्ष की आज्ञा मिली और उन्हें निरंतर ‎मक्का वासियों के हमलों का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर एक इस्लामी ‎राज्य की स्थापना के साथ पूरे समाज की रचना के लिए ईश्वरीय नियम ‎अवतरित हुए। युध्द, शांति, न्याय, समाजिक रीति रिवाज, खान पान सबके ‎बारे में ईश्वर के आदेश इस युग के क़ुरआन की विशेषता हैं। जिनके आधार ‎पर समाजिक बराबरी का एक आदर्श राज्य अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने ‎खड़ा कर दिया। जिसके आधार पर आज सदियों बाद भी हज़रत मुहम्मद ‎‎(सल्ल.) का क्रम विश्व नायकों में प्रथम माना जाता है। उन्होंने जीवन के ‎हर क्षैत्र में ज़बानी निर्देश नहीं दिए, बल्कि उस पर अमल करके दिखाया।

इस पृष्ठ भूमि के कारण ही क़ुरआन में कई बार एक ही बात को बार ‎बार दोहराया जाना लगता है। एकेश्वरवाद, धार्मिक आदेश, स्वर्ग, नरक, सब्र ‎‎(धैर्य), धर्म परायणता (तक्वा) के विषय हैं जो बार बार दोहराए गए।

क़ुरआन ने एक सीधे साधे, नेक व्यापारी इंसान को, जो अपने ‎परिवार में एक भरपूर जीवन गुज़ार रहा था। विश्व की दो महान शक्तियों ‎‎(रोमन तथा ईरानी साम्राज्य) के समक्ष खड़ा कर दिया। केवल यही नहीं ‎उसने रेगिस्तान के अनपढ़ लोगों को ऐसा सभ्य बना दिया कि पूरे विश्व पर ‎इस सभ्यता की छाप से सैकड़ों वर्षों बाद भी पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। ‎क़ुरआन ने युध्द, शांति, राज्य संचालन इबादत, परिवार के वे आदर्श प्रस्तुत ‎किए जिसका मानव समाज में आज प्रभाव है।

‎19 वीं सदी के विज्ञान के इस युग मे जहां अन्य धर्मों की पुस्तकें ‎इस आधुनिक विज्ञान पर खामोश हैं। वहीं क़ुरआन ने अपने चमत्कार के वे ‎द्वार खोले हैं जिससे यूरोप और अमेरीका कांप उठा है।

क़ुरआन के इस वैज्ञानिक पक्ष को हम उन आयतों के साथ विस्तार ‎से प्रस्तुत करेंगे। यहां एक उदाहरण काफ़ी होगा जिससे क़ुरआन का ‎वैज्ञानिक आधार आपको समझ में आ सकता है।

वैज्ञानिक पक्ष यहां यह ध्यान में रखिए कि क़ुरआन कोई विज्ञान की ‎पुस्तक नहीं है बल्कि वह मनुष्य को उसके रचनाकार की इच्छा के अनुसार ‎धरती पर जीवन गुज़ारने की हिदायत के लिए आया है। इसमें धरती का ‎निर्माता जब बोलता है तो सहज भाषा में विज्ञान के वे नियम आ जाते हैं ‎जिन पर वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं।‎

कुछ वर्षों पूर्व अरबों के एक गुट ने भ्रुण शास्त्र से संबंधिक क़ुरआन ‎की आयतें एकत्रित कर उन्हे इंग्लिश में अनुवाद कर, प्रो. डॉ. कीथ मूर के ‎समक्ष प्रस्तुत की जो भ्रूण शास्त्र (embryology) के प्रोफेसर और टोरंटो ‎विश्वविद्यालय (कनाडा) के विभागाध्यक्ष हैं। इस समय विश्व में भ्रूण शास्त्र के ‎सर्वोच्च ज्ञाता माने जाते हैं।

उनसे कहा गया कि वे क़ुरआन में भ्रूण शास्त्र से संबंधित आयतों पर ‎अपने विचार प्रस्तुत करें। उन्होंने उनका अध्ययन करने के पश्चात कहा कि ‎भ्रूण शास्त्र के संबंध में क़ुरआन में वर्णन ठीक आधुनिक खोज़ों के अनुरूप ‎हैं। कुछ आयतों के बारे में उन्होंने कहा कि वे इसे ग़लत या सही नहीं कह ‎सकते क्यों कि वे खुद इस बात में अनभिज्ञ हैं। इसमें सबसे पहले नाज़िल ‎की गई क़ुरआन की वह आयत भी शामिल थी जिसका अनुवाद है।

अपने परवरदिगार का नाम ले कर पढ़ो, जिसने (दुनिया को) पैदा ‎किया। जिसने इंसान को खून की फुटकी से बनाया।

इसमें अरबी भाषा में एक शब्द का उपयोग किया गया है अलक़ इस ‎का एक अर्थ होता खून की फुटकी (जमा हुआ रक्त) और दूसरा अर्थ होता है ‎जोंक जैसा।

डॉ. मूर को उस समय तक यह ज्ञात नहीं था कि क्या माता के गर्भ ‎में आरंभ में भ्रूण की सूरत जोंक की तरह होती है। उन्होंने अपने प्रयोग इस ‎बारे में किए और अध्ययन के पश्चात कहा कि माता के गर्भ में आरंभ में ‎भ्रूण जोंक की आकृति में ही होता है। डॉ कीथ मूर ने भ्रूण शास्त्र के संबंध ‎में 80 प्रश्नों के उत्तर दिए जो क़ुरआन और हदीस में वर्णित हैं।‎

उन्ही के शब्दों में, यदि 30 वर्ष पूर्व मुझसे यह प्रश्न पूछे जाते तो ‎मैं इनमें आधे भी उत्तर नहीं दे पाता। क्यों कि तब तक विज्ञान ने इस क्षैत्र ‎में इतनी प्रगति नहीं की थी।

‎1981 में सऊदी मेडिकल कांफ्रेंस में डॉ. मूर ने घोषणा की कि उन्हें ‎क़ुरआन की भ्रूण शास्त्र की इन आयतों को देख कर विश्वास हो गया है कि ‎हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ईश्वर के पैग़म्बर थे। क्यों कि सदियों पूर्व जब ‎विज्ञान खुद भ्रूण अवस्था में हो इतनी सटीक बातें केवल ईश्वर ही कह ‎सकता है।

डॉ. मूर ने अपनी पुस्तक के 1982 के संस्करण में सभी बातों को ‎शामिल किया है जो कई भाषाओं में उपलब्ध है और प्रथम वर्ष के ‎चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती है। इस पुस्तक (The ‎developing human) को किसी एक व्यक्ति द्वारा चिकित्सा शास्त्र के क्षैत्र में ‎लिखी पुस्तक का अवार्ड भी मिल चुका है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्हे ‎क़ुरआन की इस टीका में आप निरंतर पढ़ेंगे।

मत भिन्नता एक एतराज़ किया जाता है कि जब क़ुरआन इतनी ‎सिध्द पुस्तक है तो उसकी टीका में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से अब तक ‎विद्वानों में मत भिन्नता क्यों है।

यहां इतना कहना काफी होगा कि पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने ‎अपने अनुयायियों में सेहतमंद विभेद को बढ़ावा दिया किन्तु मतभिन्नता के ‎आधार पर कट्टरपन और गुटबंदी को आपने पसंद नहीं किया। सेहतमंद ‎मतभिन्नता समाज की प्रगति में सदैव सहायक होती है और गुटबंदी सदैव ‎नुक़सान पहुंचाती है।

इसलिए इस्लामी विद्वानों की मतभिन्नता भी क़ुरआन हदीस में कार्य ‎करने और आदर्श समाज की रचना में सहायक हुई है किन्तु नुक़सान इस ‎मतभिन्नता को कट्टर रूप में विकसित कर गुटबंदी के कारण हुआ है।

शाब्दिक वह्य क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर अवतरित हुआ वह ‎ईश्वरीय शब्दों में था। यह वह्य शाब्दिक है, अर्थ के रूप में नहीं। यह बात ‎इसलिए स्पष्ठ करना पड़ी कि ईसाई शिक्षण संस्थाओं में यह शिक्षा दी जाती ‎है कि वह्य ईश्वरीय शब्दों में नहीं होती बल्कि नबी के हृदय पर उसका अर्थ ‎आता है जो वह अपने शब्दों में वर्णित कर देता है। ईसाईयों के लिए यह ‎विश्वास इसलिए ज़रूरी है कि बाईबिल में जो बदलाव उन्होंने किए हैं, उसे वे ‎इसी प्रकार सत्य बता सकते थे। पूरा ईसाई और यहुदी विश्व सदियों से यह ‎प्रयास कर रहा है कि किसी प्रकार यह सिध्द कर दे कि क़ुरआन हज़रत ‎मुहम्मद (सल्ल.) के शब्द हैं और उनकी रचना है। इस बारे में कई पुस्तकें ‎लिखी गई और कई तरीक़ों से यह सिध्द करने के प्रयास किए गए किन्तु ‎अभी तक किसी को यह सफलता नहीं मिल सकी।

संकलनकर्ता : अबु मुहम्मद फ़ाज़िल

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