श्रीलंका का इतिहास
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दक्षिण एशिया तथा भारत का इतिहास |
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पाषाण युग | ७०,०००–३३०० ई.पू. | ||||
• मेहरगढ़ संस्कृति | • ७०००–३३०० ईपू | ||||
सिन्धु घाटी सभ्यता | ३३००–१७०० ईपू | ||||
हड़प्पा संस्कृति | १७००–१३०० ईपू | ||||
वैदिक काल | १५००–५०० ईपू | ||||
पाषाण युग | १२००–३०० ईपू | ||||
• महाजनपद | • ७००–३०० ईपू | ||||
• मगध साम्राज्य | • ५४५–३२० ईपू | ||||
• मौर्य साम्राज्य | • ३२१–१८४ ईपू | ||||
मध्यकालीन राज्य | २३० ईपू– १२७९ | ||||
• सातवाहन साम्राज्य | • २३० ईपू – १९९ | ||||
• कुषाण साम्राज्य | • ६० – २४० | ||||
• गुप्त साम्राज्य | •२८०–५५० | ||||
• पाल साम्राज्य | • ७५०–११७४ | ||||
• चौल साम्राज्य | • २५० ईपू–१०७० | ||||
इस्लामी सल्तनतें | १२०६–१५९६ | ||||
• दिल्ली सल्तनत | • १२०६–१५२६ | ||||
• दक्कन सल्तनत | • १४९०–१५९६ | ||||
होयसल साम्राज्य | १०४०–१३४६ | ||||
ककातिया साम्राज्य | १०८३–१३२३ | ||||
विजयनगर साम्राज्य | १३३६–१५६५ | ||||
मुगल साम्राज्य | १५२६–१८५७ | ||||
मराठा साम्राज्य | १६७४–१८१८ | ||||
सिख राज्यसंघ | १७१६–१८४९ | ||||
अंग्रेजी शासन | १८५८–१९४७ | ||||
भारत का विभाजन | १९४७ के पश्चात | ||||
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इतिहासकारों में इस बात की आम धारणा थी कि श्रीलंका के आदिम निवासी और दक्षिण भारत के आदिम मानव एक ही थे । पर अभी ताजा खुदाई से पता चला है कि श्रीलंका के शुरुआती मानव का सम्बंध उत्तर भारत के लोगों से था । भाषिक विश्लेषणों से पता चलता है कि सिंहली भाषा, गुजराती और सिंधी से जुड़ी है ।
प्राचीन काल से ही श्रीलंका पर शाही सिंहला वंश का शासन रहा है । समय समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इसपर होता रहा है । तीसरी सदी इसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ । इब्नबतूता ने चौदहवीं सदी में द्वीप का भ्रमण किया ।
अनुक्रम |
[संपादित करें] प्रागैतिहासिक काल
इस द्वीप पर बालंगोडा लोगों (इस नाम के स्थान पर नामकृत) का निवास कोई ३४,००० वर्ष पूर्व से था । उन्हें मेसोलिथिक शिकारी संग्रहकर्ता के रूप में मान्यता दी गई है । जौ और कुछ अन्य खाद्यान्नों से द्वीपनिवासियों का परिचय ईसापूर्व १५,००० इस्वी तक हो गया था । प्राचीन मिस्र में ईसा पूर्व १५०० ईस्वी के आसपास दालचीनी (दारचीनी) उपलब्ध थी जिसका मूल श्रीलंका समझा जाता है, अर्थात् उस समय से इन दो देशों के बीच व्यापारिक सम्बंध रहे होंगे । अंग्रेज यात्री और राजनयिक सर जेम्स इमर्सन टेनेन्ट ने श्रीलंका के शहर गाले की पहचान हिब्रू बाइबल में वर्णित स्थान टार्शिश से की है ।
भारतीय पौराणिक काव्यों में इस स्थान का वर्णन लंका के रूप में किया गया है । रामायण, जिसकी रचना सम्भवतः ईसापूर्व ४थी से दूसरी सदी के बीच हुई होगी, में इस स्थान को राक्षसराज रावण का निवास स्थान बताया गया है । बौद्ध ग्रंथ दीपवंश और महावंश में दिए गए विवरण के अनुसार इस द्वीप पर भारतीय आर्यों के आगमन से पूर्व यक्ष तथा नागों का वास था ।
अनुराधपुरा (या अनुराधापुरा) के पास पाए गए मृदभांडों पर ब्राह्मी तथा गैर-ब्राह्मी लिपि में लिखावट मिले हैं जो ईसापूर्व ६०० इस्वी के हैं ।
[संपादित करें] प्राचीन काल
पालि सामयिक दीपवंश, महावंश और चालुवंश, कई प्रस्तर लेख तथा भारतीय और बर्मा के सामयिक लेख छठी सदी ईसापूर्व के श्रीलंका की जानकारी देते हैं । महावंश पांचवी सदी में लिखा गया बौद्ध ग्रंथ है जिसकी रचना नागसेन ने की थी । यह भारतीय तथा श्रीलंकाई शासकों का विवरण देता है । इससे ही सम्राट अशोक के जीवनकाल का सही पता चलता है जिसमें लिखा है कि अशोक का जन्म बुद्ध के २१८ साल बाद हुआ । इसके अनुसार विजय के ७०० अनुयायी इस द्वीप पर कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) से आए । इस द्वीप पर विजय ने अपने कदम रखे जिसमें उसने इसे ताम्रपर्णी का नाम दिया (तांबे के पत्तो जैसी) । यही नाम टॉलेमी के नक्शे में भी अंकित हुआ । विजय एक राजकुमार था जिसका जन्म, कथाओं के अनुसार एक राजकुमारी और सिंह (शेर) के संयोग से हुआ था । उसके वंशज सिंहली कहलाए । हंलांकि वंशानुगत वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चलता है कि यहां के लोग एक मिश्रित जाति के लोग हैं और इनका भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों से सम्बंध अब भी विवाद का विषय है ।
उत्तर भारत के लोगों के आगमन से और दक्षिण भारतीय साम्राज्यों की शक्ति बढ़ने से द्वीप पर दक्षिण भारतीय आक्रमण भी शुरु हुए । सेना और गुट्टका दो प्राचीन तमिळ शासक थे जिन्होंने दूसरी सदी इसापूर्व के आसपास शासन किया । इनके अस्तित्व का प्रमाण तो कुछ नहीं मिलता है पर महावंश में इनका अप्रत्यक्ष जिक्र किया गया है ।
इसी प्रकार प्राचीन भारत के महाजनपद कम्बोजों से भी इनका सम्बंध लगाया जाता है । यवन (ग्रीक), जोकि उत्तर पश्चिम भारत में कम्बोजों के पड़ोसी थे, से भी इनका व्यापारिक सम्बंध था और उनके व्यापारिक उपनिवेश भी इन क्षेत्रों में थे - खासकर अनुराधपुरा के इलाके में ।
[संपादित करें] मध्यकाल
देवनमपिया टिस्सा (ईसापूर्व २५० इस्वी - ईसापूर्व २१० इस्वी) के संबंध राजा अशोक से थे जिसके कारण उस दौरान श्रीलंका में बौद्ध धर्म का आगमन और प्रसार हुआ । अशोक के पुत्र महेन्द्र (महेन्द), संघमित्र के साथ , बोधि वृक्ष अपने साथ जम्बूकोला (सम्बिलितुरै) लाया । यह समय थेरावाद बौद्ध धर्म तथा श्रीलंका दोनो के लिए महत्वपूर्ण है ।
प्रसिद्ध चोल राजा एलारा ने २१५ ईसापूर्व से ईसापूर्व १६१ ईस्वी तक राज किया । कवण टिस्सा के पुत्र दुत्तु गेमुनु ने उसे ईसापूर्व १६१ ईस्वी में, दंतकथाओं के अनसार १५ वर्ष के संघर्ष के बाद हरा दिया । इसके बाद पांच तमिल सरदारों ने यहां राज किया जिसके बाद तमिल शासन का तत्काल अंत हो गया । इसी समय बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक की रचना हुई ।
महासेन (२७४-३०१ ईस्वी) ने थेरावाद का दमन किया और महायान बौद्ध धर्म प्रधान होता गया । पांडु (४२९ ईस्वी) इस द्वीप का पहला पांड्य शासक था । उसके वंश के आखिरी शासक को मनवम्मा (६८४-७१८ ईस्वी) ने पल्लवों की मदत से हरा दिया । अगले तीन सदियों तक पल्लवों के अधीन रहने के बाद दक्षिण भारत में पांड्यों का फिर से उदय हुआ । अनुराधपुरा पर पांड्यों का आक्रमण हुआ और उसे लूट लिया गया । हंलांकि इसी समय सिंहलियों ने पांड्यों पर आक्रमण किया और उन्होंने पांड्यों के नगर मदुरै को लूट लिया ।
दसवीं सदी में चोलों का उदय हुआ और राजेन्द्र चोल प्रथम ने सबको दक्षिण-पूर्व की ओर खदेड़ दिया । पर १०५५ ईस्वी में विजयबाहु ने वापस पूरे द्वीप पर अधिकार कर लिया । तेरहवीं सदी के आरंभ में कलिंग के राजा माघ ने तमिळ तथा केरलाई लड़ाकों के साथ इस द्वीप पर आक्रमण कर दिया । उसके और परवर्ती शासकों के काल में राजधानी अनुराधपुरा से दक्षिण की तरफ़ खिसकती गई और कैंडी पहुंच गई । साथ ही जाफना का उदय एक प्रांतीय शक्ति के रूप में हुआ । पराक्रम बाहु षष्ठ (१४११-६६) एक पराक्रमी शासक था जिसने सम्पूर्ण श्रीलंका को अपने अधीन कर लिया । वो कला का भी बड़ा प्रशँसक था और उसने कई कवियों को प्रोत्साहन दिया । उसके शासनकाल में राजधानी कोट्टे कर दी गई जो जयवर्धनपुरा के नाम से आज भी श्रीलंका की प्रशासनिक राजधानी है (कोलंबो के पूर्वी भाग में) ।
[संपादित करें] यूरोपीय प्रभाव
सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय शक्तियों ने श्रीलंका में कदम रखा और श्रीलंका व्यापार का केन्द्र बनता गया । देश चाय, रबड़, चीनी, कॉफ़ी, दालचीनी सहित अन्य मसालों का निर्यातक बन गया । पहले पुर्तगाल ने कोलम्बो के पास अपना दुर्ग बनाया । धीरे धीरे पुर्तगालियों ने अपना प्रभुत्व आसपास के इलाकों में बना लिया । श्रीलंका के निवासियों में उनके प्रति घृणा घर कर गई । उन्होने डच लोगो से मदत की अपील की । १६३० इस्वी में डचों ने पुर्तगालियों पर हमला बोला और उन्हे मार गिराया । पर उन्होने आम लोगों पर और भी जोरदार कर लगाए । १६६० में एक अंग्रेज का जहाज गलती से इस द्वीप पर आ गया । उसे कैंडी के राजा ने कैद कर लिया । उन्नीस साल तक कारागार में रहने के बाद वह यहां से भाग निकला और उसने अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक लिखी जिसके बाद अंग्रेजों का ध्यान भी इसपर गया । नीदरलैंड पर फ्रांस के अधिकार होने के बाद अंग्रेजों को डर हुआ कि श्रीलंका के डच इलाकों पर फ्रांसिसी अधिकार हो जाएगा । इसलिए उन्होने डच इलाकों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया । १८०० इस्वी के आते आते तटीय इलाकों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । १८१८ तक अंतिम राज्य कैंडी के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया और इसतरह सम्पूर्ण श्रीलंका पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । 1930 के दशक में स्वाधीनता आंदोलन तेज हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ४ फरवरी १९४८ को देश को संयुक्त राजशाही से पूर्ण स्वतंत्रता मिली ।
[संपादित करें] आधुनिक काल
[संपादित करें] स्वतंत्रता संग्राम
[संपादित करें] तमिल राष्ट्रवाद और जातीय संघर्ष
1980 के दशक में जातीय संघर्ष ने भीषण रूप ले लिया । यह संघर्ष अब तक (मार्च,२००७) तक चल रहा है। बाच बीच में कुछ संघर्षविराम समझोते हुए थे पर लम्बे समय तक इसका पलन नहीं हुआ ।
[संपादित करें] बाहरी कड़िय़ाँ
- श्रीलंका के इतिहास पर लेखों की श्रृंखला - लंका लाईब्रेरी डॉट कॉम (अंग्रेज़ी में) - http://www.lankalibrary.com/geo.html
- हिस्ट्रीवर्ल्ड डॉट नेट पर श्रीलंका का इतिहास - http://www.historyworld.net/wrldhis/PlainTextHistories.asp?historyid=ac68