कसीदा
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कसीदा उर्दू काव्य का वह रूप हॅ जिसमें किसी की प्रशंसा की जाए। इसमें हर शेर का दूसरा मिस्रा एक ही रदीफ ऑर काफिए (तुकान्त) में होता हॅ। कसीदे दो प्रकार के होते हँ । एक वह, जिसमें कवि प्रारम्भ से ही प्रशंसा करने लगता हॅ ऑर दूसरा वह जिसमें प्रारम्भ में एक तरह की भूमिका दी जाती हॅ ऑर कवि ऑर बातों के अलावा वसंत, बहार, दर्शन, ज्योतिष आदि के विषय में कुछ कहता हॅ। इन प्रारम्भिक वर्णनों को "तश्बीब" कहते हॅं। तश्बीब के बाद कवि प्रशंसा करने की ओर अपने शेरों को मोडता हॅ। इस मोड को गुरेज कहते हॅ। इसका वर्णन बहुत मुश्किल समझा जाता हॅ ऑर इसी के द्वारा शायर के कमाल का अनुमान होता हॅ। अच्छी गुरेज वह हॅ जिसमॅ कवि 'तश्बीब' से 'तारीफ' (प्रशंसा) पर इस तरह आ जाए कि पढने वालों को यह पता ही न चले कि प्रशंसा का विषय ठूँस-ठाँसकर लाया गया हॅ। कसीदे के तीसरे अंग 'मदह' (प्रशंसा) के बाद चॉथा अंग 'दुआ' होता हॅ। जिसमें कवि ममदूह (प्रशंसित व्यक्ति) के लिए शुभकामनाएँ करता हुआ उससे कुछ याचना करता हॅ। इसी के बाद कसीदा समाप्त हो जाता हॅ।