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सफ़ाई कामगार समुदाय - विकिपीडिया

सफ़ाई कामगार समुदाय

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सफ़ाई कामगार समुदाय
मुखपृष्ठ
मुखपृष्ठ
रचयिता: संजीव खुदशाह
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
प्रकाशन तिथि: २००५
भाषा: हिंदी
देश: भारत
विषय: समाजशास्त्र
शैली: आलोचना
मीडिया प्रकार: आलोचनात्मक अध्ययन
सफ़ाई कर्मचारियों के जीवन पर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक

संजीव खुदशाह ने अपने पुस्तक ’सफाई कामगार समुदाय‘ (२००५) में छूटे हुए कुछ सवालों के समाधान की एक कोशिश की है। वे कहानियां और कविताएं लिखते हैं, पर इतिहास और विचार के क्षेत्रा में यह उनकी पहली पुस्तक है। संजीव ने तथ्यों को जुटाने और उनका विश्लेषण करने में वस्तुतः काफी मेहनत की है। डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने इसकी भूमिका लिखी है, जो सुलभ स्वच्छता आन्दोलन के संस्थापक माने जाते हैं। संजीव खुदशाह ने मेहतर के जन्म को लेकर जितने भी सिद्धान्त और धारणाएं प्रचलित है, उन सभी की तार्किक व्याख्याएं की हैं। उन्होंने धार्मिक साहित्य की भी छानबीन की है और अनेक संन्तों जैसे सुदर्शन और श्वपच की कथाओं पर विस्तार से चर्चा की है, उन्होंने मेहतर समुदाय को वाल्मीकि बनाने की साजिष्श का भी पर्दाफाश किया है, जो उनके अनुसार इस समाज का हिन्दूकरण हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि वाल्मीकि ऋषि से सफाई कामगार समाज का कोई सम्बन्ध नहीं बनता है। यद्यपि, उन्होंने इस मत का खण्डन नहीं किया है कि मेहतर समुदाय मुस्लिम काल में अस्तित्व में आये, पर यह सवाल जष्रूर उठाया है कि यदि ऐसा होता, तो ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध द्वारा भंगी सुणीत को धर्म-दिक्षा देने का विवरण क्यों मिलता? (पृ. ४३) इसका जिष्क्र थरगाथा के द्वादस निपात में मिलता है।


संजीव खुदशाह ने अपने अध्ययन को पांच खण्डों में विभाजित किया है, पहले और दूसरे खण्ड में उन्होंने अछूतपन की उत्पत्ति के ऐतिहासिक स्रोत और सफाईकर्मी समुदाय से सम्बन्धित परिकल्पनाओं का विवेचन किया है। तीसरे खण्ड में जाति के नामकरण और कुछ नामों पर विचार किया है, जिसमें श्वपच, चांडाल और डोम शब्दों पर चर्चा है। यहां, ’जाति‘ का प्रयोग उन्होंने समुदाय शब्द के अर्थ में किया है। इस खण्ड में उन्होंने ’हिन्दू जाति का उत्थान एवं पतन‘ पुस्तक के आधार पर हिन्दू शब्द पर विचार किया है। चौथे खण्ड में सामाजिक परिवेश और पांचवे खण्ड में संगठन, विकास और समाधान कथा है। सामाजिक परिवेश के अन्तर्गत लेखक ने जातियों के दो भाग बनाये हैं। ’अ‘ भाग और ’ब‘ भाग। उसके अनुसार-’अ‘ भाग की जातियां वे हैं, जो मुसलमानों के आने से पहले क्षत्रिय ब्राह्मण थी। वे बन्दी सैनिक थे, जिन्हें गुलाम बनाया गया था और इस्लाम स्वीकार न करने के कारण उनसे पाखाना साफ करने जैसा निकृष्ट कार्य लिया गया था। इन जातियों में मेहतर, मलकाना, हलालखोर, शेख भंगी, लालबेग, शेखडा, मुसल्ली और खाकरूब आदि आती हैं। (पृ. ८९-९२) इतिहास से ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि जब जागीरे या जमींदारियां बिकती थी, तो जमीनों और बाग-बगीचों के साथ-साथ कामगार जातियां भी बिक जाती थीं और वे नये जागीरदार या जमीदार की हुकूमत के हिसाब से काम करने के लिए बाध्य होते थे। अगर जागीरदार या जमीदार मुसलमान होता था, तो वह कामगार दलित जातियों में से जो अछूत होते थे, उनसे अपने यहां पखाना साफ करने का काम भी ले सकता था। ऐसी ही मुस्लिम जागीरों में वे मुसलमान भी बन गये हों या बना दिये गये हों, पर वे गन्दा काम भी करते रहे हों।


भाग ’ब‘ की जातियां, लेखक के अनुसार वे है जो अंशतः या सम्भवतः चंडाल, डोम, श्वपच आदि से डोम, डुमार, हेला, धानुक, नगाडची, मखीयार और बसोर आदि कहलायीं। (पृ. ९२) ये जातियां महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, बिहार, उडीसा और बंगाल में फैली हुई हैं। वह लिखता है कि अपने मूल स्थान पर इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के बावजूद वे सफाई का काम नहीं करती थी। इन जातियों ने पलायन करने के बाद ही सफाई का पेशा अपनाया। (पृ. ९३) लेखक ने तर्क प्रस्तुत किया है कि इन जातियों ने गरीबी और जाति की प्रताडना से तंग आकर उस समय पलायन किया, जब सारा देश स्वतंत्राता के लिये अंग्रेजों से जूझ रहा था। लेखक के अनुसार यह समय सन् १८०० के आस-पास का है। ये लोग जहां भी गये भी के रूप में गये और सूअरों को साथ लेकर गये उन्हें सैनिक छावनी, कारखाना और रेल्वे में काम मिला पर, सुअर के कारण उन्हें सम्मानजनक काम नहीं मिला, क्योंकि मुसलमान और हिन्दू कामगार दोनों ही सुअर से घुणा करते थे। लेखक के अनुसार, सहकर्मी हिन्दू और मुसलमानों ने अंग्रेज नियोक्ताओं पर दबाव दिया कि वे इनके साथ काम नहीं करेंगे, क्योंकि ये मेहतर सदृश्य है। इन्हें सफाई का काम ही दिया जाय। चूंकि अंग्रेजों को राज चलाना था, इसलिये उन्होंने इन लोगों को सफाई का काम दे दिया। (पृ. १०१) लेखक के अनुसार, अंग्रेजों ने ही इन्हें नया नाम ’स्वीपर‘ दिया। यहां यह प्रश्न उठता है कि इन लोगों ने सफाई का काम क्यों स्वीकार किया और अपने मूल गांव वापिस क्यों नहीं चले गये। लेखक ने इस प्रश्न का जवाब यह दिया है कि पूर्व गांव में उनकी स्थिति ज्यादा नारकीय थी। वहां ठाकुर-ब्राह्मण उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते थे। वहां न मान-सम्मान था और न आमदनी थी। (पृ. १०४) भारतीय समाज का सामाजिक अध्ययन इस मत की पुष्टि करता है हम कह सकते हैं कि सफाई कामगारों का एक वर्ग इस आधार पर अस्तित्व में जरूर आया होगा।


पुस्तक के अंतिम खण्ड में लेखक संजीव खुदशाह ने श्री देवक ऋषि और महारज सुदर्शन की चर्चा की है और उनके नाम से स्थापित किये गये संगठनों पर विचार किया है। आगे धर्मान्तरण पर विचार करते हुए लेखक ने उसे सकारात्मक कदम बताया है। (पृ. १३४-१३६) अन्त में लेखक का समाधान है कि सफाई कामगार समुदाय विदेश से आयात नहीं हुए, बल्कि इसी समाज के अंग थे। उनकी घृणित अवस्था के लिये हमारी सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है। आधुनिकीकरण, नगरीयकरण और आरक्षण को वे इस समुदाय के हित में मानते हैं, यहां तक कि वे सफाई कार्य में उच्च जातियों के लोगों के प्रवेश को भी इस समुदाय के लिये वरदान मानते हैं।(पृ. १४१-१४३) समग्रतः संजीव खुदशाह ने ’सफाई कामगार समुदाय‘ की उत्पत्ति, विकास और वर्तमान दयनीय स्थिति का एक विहंगम अवलोकन किया है। यह एक ऐसा अध्ययन है, जिसे हम परिपूर्ण या अंतिम नहीं कह सकते, पर उसके निष्कर्ष हमें और आगे काम करने की दिशा दे सकते हैं। उनका परिश्रम वस्तुतः सराहनीय है। दलित साहित्य के क्षेत्रा में इस तरह के अध्ययन बहुत कम हुए हैं। अभी तो एक-दो जातियों का ही इतिहास सामने आया है, बहुत सारी जातियां बाकी हैं, जिनके इतिहास के बारे में पौराणिक मिथकों के सिवा कुछ नहीं पता चलता। हम आशा कर सकते हैं कि इन जातियों से निकले लेखक संजीव खुदशाह से प्रेरणा लेंगे और अपने काम को अन्जाम देंगे।

[संपादित करें] संदर्भ

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