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बाबर - विकिपीडिया

बाबर

विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से

बाबर
बाबर

ज़हिर उद-दिन मुहम्मद (14 फरवरी 1483 - 26 दिसम्बर 1530) जो बाबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक मुगल शासक था जिसका मूल मध्य एशिया था । वह भारत में मुगल वंश का संस्थापक था । वो तैमूर लंग का परपोता था और विश्वास रखता था कि चंगेज खां उसके वंश का पूर्वज था ।

अनुक्रम

[संपादित करें] आरंभिक जीवन

बाबर का जन्म फ़रगना घाटी के अंदिजन नामक शहर में हुआ था जो अब उज्बेकिस्तान में है । वो अपने पिता उमर शेख़ मिर्ज़ा, जो फरगना घाटी के शासक थे तथा जिसको उसने एक ठिगने कद के तगड़े जिस्म, मांसल चेहरे तथा गोल दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, तथा माता कुतलुग निगार खानम का ज्येष्ठ पुत्र था । हंलांकि बाबर का मूल मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था पर उस कबाले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा उन्होने तुर्केस्तान को अपना वासस्थान बनाया । बाबर की मातृभाषा चागताई भाषा थीपर फ़ारसी, जो उस समय उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा थी, में भी वो प्रवीण था । उसने चागताई में बाबरनामा के नाम से अपनी जीवनी लिखी ।

मंगोल जाति (जिसे फ़ारसी में मुगल कहते थे) का होने के बावजूद उसकी जनता और अनुचर तुर्क तथा फ़ारसी लोग थे । उसकी सेना में तुर्क, फारसी, पश्तो के अलावा बर्लास तथा मध्य एशियाई कबीले के लोग भी थे ।

कहा जाता है कि बाबर बहुत ही तगड़ा और शक्तिशाली था । ऐसा भी कहा जाता है कि सिर्फ व्यायाम के लिए वो दो लोगों को अपने दोनो कंधों पर लादकर उन्नयन ढाल पर दौड़ लेता था । लोककथाओं के अनुसार बाबर अपने राह में आने वाले सभी नदियों को तैर कर पार करता था । उसने गंगा को दो बार तैर कर पार किया ।

[संपादित करें] नाम

बाबर के चचेरे भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हैदर ने लिखा है कि उस समय, जब चागताई लोग असभ्य तथा असंस्कृत थे तब उन्हे ज़हिर उद-दिन मुहम्मद का उच्चारण कठिन लगा । इस कारण उन्होंने इसका नाम बाबर रख दिया ।

[संपादित करें] सैन्य जीवन

सन् १४९४ में १२ वर्ष की आयु में ही उसे फ़रगना घाटी के शासक का पद सौंपा गया । उसके चाचाओं ने इस स्थिति का फायदा उठाया और बाबर को गद्दी से हटा दिया । कई सालों तक उसने निर्वासन में जीवन बिताया जब उसके साथ कुछ किसान और उसके सम्बंधी ही थे । १४९७ में उसने उज़्बेक शहर समरकंद पर आक्रमण किया और ७ महीनों के बाद उसे जीत भी लिया । इसी बीच, जब वह समरकंद पर आक्रमण कर रहा था तब, उसके एक सैनिक सरगना ने फ़रगना पर अपना अधिपत्य जमा लिया । जब बाबर इसपर वापस अधिकार करने फ़रगना आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप समरकंद और फ़रगना दोनो उसके हाथों से चले गए । सन् १५०१ में उसने समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया पर जल्द ही उसे उज़्बेक ख़ान मुहम्मद शायबानी ने हरा दिया और इस तरह समरकंद, जो उसके जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर वापस निकल गया।

फरगना से अपने चन्द वफ़ादार सैनिकों के साथ भागने के बाद अगले तील सालों तक उसने अपनी सेना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया । इस क्रम में उसने बड़ी मात्रा में बदख़्शान प्रांत के ताज़िकों को अपनी सेना में भर्ती किया । सन् १५०४ में हिन्दूकुश की बर्फ़ीली चोटियों को पार करके उसने काबुल पर अपना नियंत्रण स्थापित किया । नए साम्राज्य के मिलने से उसने अपनी किस्मत के सितारे खुलने के सपने देखे । कुछ दिनों के बाद उसने हेरात के एक तैमूरवंशी हुसैन बैकरह, जो कि उसका दूर का रिश्तेदार भी था, के साथ मुहम्मद शायबानी के विरुद्ध सहयोग की संधि की । पर १५०६ में हुसैन की मृत्यु के कारण ऐसा नहीं हो पाया और उसने हेरात पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । पर दो महीनो के भीतर ही, साधनों के अभाव में उसे हेरात छोड़ना पड़ा । अपनी जीवनी में उसने हेरात को "बुद्धिजीवियों से भरे शहर" के रूप में वर्णित किया है । वहां पर उसे युईगूर कवि मीर अली शाह नवाई की रचनाओं के बारे में पता चला जो चागताई भाषा को साहित्य की भाषा बनाने के पक्ष में थे । शायद बाबर को अपनी जीवनी चागताई भाषा में लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली होगी ।

काबुल लौटने के दो साल के भीतर ही एक और सरगना ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह किया और उसे काबुल से भागना पड़ा । जल्द ही उसने काबुल पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । इधर सन् १५१० में फ़ारस के शाह इस्माईल प्रथम, जो सफ़ीवी वंश का शासक था, ने मुहम्मद शायबानी को हराकर उसकी हत्या कर डाली । इस स्थिति को देखकर बाबर ने हेरात पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया । इसके बाद उसने शाह इस्माईल प्रथम के साथ मध्य एशिया पर मिलकर अधिपत्य जमाने के लिए एक समझौता किया । शाह इस्माईल की मदद के बदले में उमने साफ़वियों की श्रेष्ठता स्वीकार की तथा खुद एवम् अपने अनुयायियों को साफ़वियों की प्रभुता के अधीन समझा । इसके उत्तर में शाह इस्माईल ने बाबर को उसकी बहन ख़ानज़दा से मिलाया जिसे शायबानी, जिसे शाह इस्माईल ने हाल ही में हरा कर मार डाला था, ने कैद में रख़ा हुआ था और उससे विवाह करने की बलात् कोशिश कर रहा था । शाह ने बाबर को ऐश-ओ-आराम तथा सैन्य हितों के लिये पूरी सहायता दी जिसका ज़बाब बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया । उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया । शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था । वहां सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्ज़िद में खुतबे शाह के नाम से पढ़े जाते थे हंलांकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे । बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था ।

शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की । वहां पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नजर में उज़्बेकों से मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गांव के गांव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए । इसके बाद फारस के शाह की मदद को अनावश्यक समझकर उसने शाह की सहायता लेनी बंद कर दी । अक्टूबर १५११ में उसने समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया । वहां भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गांव के गांव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए । वहां सुन्नी मुलसमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लग रहा था । हंलांकि उसका शिया हुलिया सिर्फ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता को दर्शाने के लिए थी, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा । यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई । इसके फलस्वरूप, ८ महीनों के बाद, उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया ।

[संपादित करें] उत्तर भारत पर चढ़ाई

दिल्ली सल्तनत पर ख़िलज़ी राजवंश के पतन के बाद अराजकता की स्थिति बनी हुई थी । तैमूरलंग के आक्रमण के बाद सैय्यदों ने स्थिति का फ़ायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता पर अधिपत्य कायम कर लिया । तैमुर लंग के द्वारा पंजाब का शासक बनाए जाने के बाद खिज्र खान ने इस वंश की स्थापना की थी । बाद में लोदी राजवंश के अफ़ग़ानों ने सैय्यदों को हरा कर सत्ता हथिया ली थी ।

[संपादित करें] इब्राहिम लोदी

बाबर को लगता था कि दिल्ली सल्तनत पर फिर से तैमूरवंशियों का शासन होना चाहिए । एक तैमूरवंशी होने के कारण वो दिल्ली सल्तनत पर कब्जा करना चाहता था । उसने सुल्तान इब्राहिम लोदी को अपनी इच्छा से अवगत कराया (स्पष्टीकरण चाहिए) । इब्राहिम लोदी के जबाब नहीं आने पर उसने छोटे-छोटे आक्रमण करने आरंभ कर दिये । सबसे पहले उसने कंधार पर कब्जा किया । इधर शाह इस्माईल को तुर्कों के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा । इस युद्ध के बार शाह इस्माईल तथा बाबर, दोनों ने बारूदी हथियारों की सैन्य महत्ता समझते हुए इसका उपयोग अपनी सेना में आरंभ किया । इसके बाद उसने इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया । पानीपत में लड़ी गई इस लड़ाई को पानीपत का प्रथम युद्ध के नाम से जानते हैं । इसमें बाबर की सेना इब्राहिम लोदी की सेना के सामने बहुत छोटी थी । पर सेमा में संगठन के अभाव में इब्राहिम लोदी यह युद्ध बाबर से हार गया । इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर बाबर का अधिकार हो गया और उसने सन १५२६ में मुगलवंश की नींव डाली ।

[संपादित करें] राजपूत

राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत काफी संगठित तथा शक्तिशाली हो चुके थे । राजपूतों ने एक बड़ा सा क्षेत्र स्वतंत्र कर लिया था और वे दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना चाहते थे । इब्राहिम लोदी से लड़ते लड़ते बाबर की सेना को बहुत क्षति पहुंची थी । बाबर की सेना राजपूतों की आधी भी नहीं थी । मार्च १५२७ में खानवा की लड़ाई राजपूतों तथा बाबर की सेना के बीच लड़ी गई । राजपूतों का जीतना निश्चित लग रहा था । पर युद्ध के दौरान तोमरों ने राणा सांगा का साथ छोड़ दिया और बाबर से जा मिले । इसके बाद राणा सांगा को भागना पड़ा और एक आसान सी लग रही जीत उसके हाथों से निकल गई । इसके एक साल के बाद किसी मंत्री द्वारा जहर खिलाने कारण राणा सांगा की मौत हो गई और बाबर का सबसे बड़ा डर उसके माथे से टल गया । इसके बाद बाबर दिल्ली की गद्दी का अविवादित अधिकारी बन गया । आने वाले दिनों में मुगल वंश ने भारत की सत्ता पर ३०० सालों तक राज किया ।

बाबर के द्वारा मुगलवंश की नींव रखने के बाद मुगलों ने भारत की संस्कृति पर अपना अमिट छाप छोड़ी ।

[संपादित करें] अन्तिम के दिन

कहा जाता है कि अपने पुत्र हुमायुं के बीमार पड़ने पर उसने अल्लाह से हुमायुं को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी । इसके बाद बाबर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंततः वो १५३० में ४८ वर्ष की उम्र में मर गया । उसकी ईच्छा थी कि उसे काबुल में दफ़नाया जाए पर पहले उसे आगरा में दफ़नाया गया । लगभग नौ वर्षों के बाद शेरशाह सूरी ने उसकी इच्छा पूरी की और उसे काबुल में दफ़ना दिया ।

मुगल वंश के शासक
बाबर | हुमायुं | अक़बर | ज़हांगीर | शाहजहां | औरंग़ज़ेब
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